मुझे शिकवा नहीं कि
तुमने मेरा बुत तराशा है
मुझे दुःख भी नहीं
तुमने मुझे क़ैदी बनाया है
मुझे तुम सर झुकाते हो
तो मेरी आँख रोती है
मुझे खुशबू लगाते हो
मुझे तक्लीफ़ होती है
की तुमने मुझको क़ैद करके
फ़िरकों का ताला गढ़ लिया है
अपने पालनहार को
ख़ुद से भी छोटा कर लिया है
देखो ज़रा! मै भूखा खड़ा हूँ,
इबादतगाहों से बाहर निकल कर
ढूँढो ज़रा, मै ज़िंदा पड़ा हूँ
ऐन मस्जिद की रहगुज़र पर
मुझको पा लो तो, वादा करो तुम
कबूतर की मानिन्द खुला छोड़ दोगे
मुझे! अपने रब को, कायनात से
फिर से वैसे ही जोड़ दोगे
- सहबा जाफ़री
बेहद फिलासॉफिकल ! समझ में नहीं आ रहा कि तारीफ़ कैसे करूं !
ReplyDeleteक्या बात है!
ReplyDeleteडरता हूँ :
"डाल देगा हलाक़त में एक दिन तुझे
ऐ परिंदे ! तेरा शाख़ पर बोलना :)
गुड लक .
लिखो , जियो जीतो !!!
...... की तुमने मुझको क़ैद करके
ReplyDeleteफ़िरकों का ताला गढ़ लिया है .....
मैं समझता हूँ की पूरी रचना की सब से दमदार लाइन और सब का निचोड़ इस में है --- बधाई , एक बेहतरीन रचना के लिये…
संपादक ---आरिफ जमाल
न्यू आब्ज़र्वर पोस्ट
क़ुतुब मेल
नयी दिल्ली
बेहद उम्दा ....वाह
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