Wednesday 13 November 2013

अपने अजन्मे बच्चे के नाम ......(बाल दिवस मुबारक )














होने लगा था 
मुझे गुब्बारों  से प्यार 
रोकने लगी थी मैं 
सड़क से गुज़रते चर्ख़ी वाले को 
झाँकने लगी थी मै 
ख़्वाबों के झरोखों में 
 जब तुम्हारी धड़कने
मेरी धड़कनो में शामिल हो 
धड़कने लगीं थीं

फिर से सीखने शुरू 
कर दिए थे मैंने 
बच्चों के खेल
फिर से बनाने लगी थी मैं 
काग़ज़ के खिलौने 
परियों की कहानियों में गुम 
भूतों के किरदार 
फिर से ज़िंदा होने लगे थे 
मेरे इर्द -गिर्द 
जब तुम्हारी साँसे 
मेरी साँसों में घुलने लगीं थी

फिर से बनने लगे थे 
नींद की नदी पर
लोरियों के पुल
फिर से सजने लगी थी 
अलिफ़ लैला की दुनिया
लकड़ी के घोड़े पर चढ़
इन्द्रधनुष की क़ामत 
नाप आते थे मेरे ख़याल
जब मैं सोंचने लगी थी 
तुम्हारे लिए नाम


कुशादा होने 
लगा था मेरा आस्मां 
उगने लगा था मेरा सूरज 
वक़्त से पहले 
 डरने लगी थी मै 
करवट लेने में भी 
सोंचती रहती थी 
मुस्तक़िल तुमको


फिर एक दिन
 मेरा हाथ पकड़ जब
मुझे बतलाया डॉक्टर साहिबा ने 
नहीं आ रहे हो तुम 
कि अभी अर्श पर
नहीं हुआ वक़्त 
तुम्हारी आमद का
छनाक से 
टूटा था , मेरे अंदर कुछ 
 
फिर बाँट दी मैंने
सारी उमंगें 
मेरे इर्द गिर्द बच्चों को 
जी लीं मैंने
सारी कहानियाँ 
अपने नज़दीक के 
तमाम नन्हे- मुन्नों के साथ
सजा लिया मैंने 
सारे बच्चों के साथ 
तुम्हारे हिस्से का प्यार 


मैं रोई नहीं 
नहीं बहाये मैंने आंसू
मुझे लगता है 
गलत कहती है डॉक्टर
तुम तो यहीं हो 
यही कही 
हर ख्वाब, हर खिलौने में  
रंग, फूल , तितली 
सब में शामिल
घर के सामने से 
गुज़र कर 
स्कूल को जाते 
हर बच्चे में   
कायनात की
हर नयी उमंग में 
फ़िज़ाँ की 
हर नयी कोंपल  में
मैंने तो तुम्हे 
इस दुनिया के हर नन्हे में ढूंढ लिया है
   
-मम्मी 


 
 
 


 

 

 
 

  

Friday 1 November 2013

मै रंग शर्बतों का , तू मीठे घाट का पानी …।



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"अब सिर  पर दीवाली खड़ी है, काम, बच्चे , कपडे, रिश्तेदार भगवान् सभी को निभाना मनाना है, और उप्पर से इनकी किट किट।"   भगवान् जाने मैं  कैसे निभा गयी  इनसे।  दीप्ती  बड़ बड़  करती कमरे से आँगन  तक आयी और तुलसी चौरा झाड़ने लगी।  " चली जाओ अपनी माँ के घर , किसने निबाहने को पीले चावल बांटे है " प्रसाद जी कौनसा पीछे रहने वाले थे, अपने उप्पर परफ्यूम की आख़री बूँद यों डाली जैसे, ताबूत में कील ठोंकी ,और यह जा वह जा।

दीप्ति  पूरा दिन लिपाई पुताई कर सिसकती रही, बच्चों  को खाना दे होमवर्क करवा ट्यूशन भेजा, कचरा साफ़ कर रांगोली डाली, नहा धो, बेडरूम साफ़ कर लेट गयी।  नहीं खाया तो बस खाना।
 सर में दर्द , लगता था जैसे , माईग्रेन ने आ जकड़ा।

शाम हुई , प्रसाद जी आये ,देखा बत्ती बंद है, मिकी चिंकू अपने कमरे में पढ़ रहे हैं , दीप्ती सो रही है। हौले  से कमरे में गए, धीमे से दीप्ती के बालों में हाथ फेरा। " दीप्ती! तुम्हारी तबियत तो ठीक है न!"  जानता हूँ काम के टेंशन में कुछ खाया भी नहीं होगा " 

धीमे धीमे सर दबाते प्रसाद ऐसे लग रहे थे जैसे मिकी , चिंकू से भी छोटे बच्चे  हों।  दीप्ती जो शाम को ही मायके जाने का प्रण  ले बैठी थी बड़ी बड़ी आँखों से अचरझ से उन्हें देख रही थी, और वह उसके लिए खाना ऐसे लगा रहे थे, मानो करवाचौथ का व्रत  खुलवा रहे हो।
  
मिकी अपने मोबाइल के गाने सुन रही थी , धीमे धीमे प्रसाद भी गुनगुना रहे थे, " मैं  रंग शर्बतों का…… "
-सहबा