Wednesday 4 March 2020

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो



           हाँ! वह " औरत " है ज़मीन पर रब के तमाम एहसानों में से एक बेशक़ीमती एहसान।  ज़मीन की ज़ीनत , ज़िन्दगी की तल्ख  फ़िज़ाओं में  राहत-बख़्श झौंका! दर्द की दवा, थके हुए ज़हन का आराम ; रेगिस्तान सी प्यास में ज़िन्दगी की ठंडी फ़ुहार।  जो न हो तो कायनात की पूरी धड़कन रुक जाए. जिसके दम से यह सय्यारा रश्केजिना है और जिसके होने से फूल,सितारे, खुशबू, रंग, परिंदे सबके विजदान में  एक कशिश सी महसूस होती है। जो ज़मीन के अधूरेपन को पूरा करने ही उतरी है और जो न हो तो सब अधूरा है. हाँ वह सचमुच औरत ही तो है जो ज़मीन को जीने के तमाम सुख मुहैय्या कराती है. खुद दुख सह कर भी. जो न हो तो किसी साज़ पर कोई सुर न हो. पर क्या वे सब भी यह सोंचती है? क्या उन्हें अपनी अहमियत पता है? क्या अपने वुजूद पर वह नाज़ करती हैं या खुद को ज़मीन का ज़र्रा ही मानती हैं?


इस महिला दिवस पर महिलाओं के वक्तव्य से ही अगर जानें कि औरत होने पर कैसा लगता है तो शायद हम जज़्बातो की उस नब्ज़ को पकड़ पाएंगे जहाँ सामाजिकता के सारे सरोकार आ कर ठहर जाते हैं।  डॉ  जया शर्मा , (प्राध्यापक कृषि-विभाग) विभागाध्यक्ष, मध्यांचल प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भोपाल कहती हैं, महिला होकर, सर उठा कर जीना उनके लिए गौरव की बात है. समाज महिलाओं ले लिए क्रूर है  किन्तु वह समाज को बदलना नहीं चाहती , वह बदला हुआ समाज चाहती है.  वे महिला होकर खुद को कभी अक्षम नहीं मानतीं; उनकी प्रतियोगी वे स्वयं हैं, वे रोज़ खुद को खुद से बेहतर बनाना चाहतीं हैं. वे शीशा देखती हैं तो स्वयं को अपनी माँ की प्रतिछाया पाती हैं. वे  रोज़ कुछ बेहतर करने से प्रसन्न होती हैं.




          पटेल ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स भोपाल की  चंचल चुलबुली नन्ही सी प्रोफेसर सुश्री दीपांजलि जितनी सुन्दर हैं , उतनी हंसमुख भी , रसायन शास्त्र की प्रोफ़ेसर होने के नाते जीने के लिए कितने और कैसे रसायनो का प्रयोग करना होता है वह भली भांति जानती हैं. महिला होकर वे खुद को बहुत खास महसूस करती हैं, पुरुषों  से कहीं ज़्यादा अलग, छात्रों पर उनका अनुशासन और प्रेम किसी भी अर्थ में किसी पुरुष प्रोफ़ेसर से कम नहीं।  वे कभी भी पुरुष होना नहीं चाहतीं। अपने सौंदर्य को वह अपनी ताक़त मानती हैं, अपने ज्ञान को अपनी पूंजी और प्रोफ़ेसर पिता की प्रतिछाया होने पर भीं माँ को अपना प्रथम गुरु मानती हैं. उनकी नज़र में खुद का महिला होना बहुत अहम् है।

   राधारमण कॉलेज ऑफ़ फॉर्मेसी भोपाल की नन्ही और नमकीन सी प्रोफ़ेसर मधु किसी भी कीमत पर अपने स्त्रीत्व को किसी से काम नहीं आंकती. वह आत्मनिर्भर हैं और बेहद मज़बूत।  फॉर्मेसी उनका जीवन है और वे स्त्री होने से  खुद को कहीं भी अपने प्रोफेशन में मिसफिट नहीं पातीं। वे सजती भी हैं, संवरती भी हैं, उन्हें रंग भी पसंद हैं और खुल कर और खुश होकर जीना भी. वह  एक दिन कॉलेज न आएं तो उनकी कमी दीवारों और दरवाज़ों को भी लगती है.  वह अगर कॉलेज बस में  न हों तो  उस दिन  कोईं पटेल सर को न सताये। वह खुद को ज़िंदगी का पैगाम मानती हैं. वह कहती हैं, यह सब स्त्री होकर ही जिया जा सकता है. भगवान् कभी पुरुष सा रूखा जीवन न दे!!!


                     राधारमण कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलॉजी की कम्प्युटर साइंस की नटखट प्रोफ़ेसर कोमल पांडे भी स्त्री होकर बहुत खुश हैं.  बेहद चुलबुली,  हंसोड़ , संघर्षरत ,ज़िम्मेदार और ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली कोमल पांडे अपने आप में एक राग  भरा गीत हैं. गाना, दौड़ना , खेलना , बंजी जम्पिंग करना और तो और किसी भी ज़िम्मेदारी से न भागना  उनकी पहचान है. उनका कहना है " स्त्री होकर आप वे सब तो कर ही सकते हैं जो एक पुरुष करता है किन्तु वह भी कर सकते हैं जो एक पुरुष इस जीवन में कभी नहीं कर पाता। हम स्त्री होकर छोटी छोटी बेमतलब की बातों पर खूब खुल कर हंस सकते हैं, हम खुल कर रो सकते हैं, हम लाड भी वसूल सकते हैं. हमें कोई किसी उपमा में नहीं बाँध सकता। हम स्त्री होकर पूरी हैं. हम हर स्थिति से उबर सकती हैं, हम सक्षम हैं."

             राधारमण  ग्रुप ऑफ़ कॉलेजेस  की काउंसलिंग हैड दीपाली जैन जब डेस्क पर बैठती हैं तो कोई भी एडमिशन निरस्त नहीं हो सकता।  नन्ही सी दीपाली जी का कैरियर बड़ा चुनौती भरा है. लोगों को कन्वेंस कर लेना उनके लिए छोटी सी बात है और वे काउंसलिंग में महिलाओं को पुरुषों से ज़्यादा श्रेष्ट मानती हैं।  दीपाली जी कहती हैं कि महिला होकर वह बहुत खुश हैं और उन्हें खुशी है कि  वे सारे हल्के- गहरे रंगों की पहचान कर लेती हैं , पुरुष बेचारे !!! उन्हें तो रंगों की भी समझ नहीं होती।
      प्रो नेहा लस्तामी , प्रो परवीन अंसारी , प्रो सृष्टि तिवारी , प्रो आकांक्षा और प्रो नीलोफर , सब के सब अपने लड़की होने से प्यार करते हैं. भागते दौड़ते जीवन  की हलचल सबके पास है, किसी के पास घर की ज़िम्मेदारी है तो कोई माँ पिता की ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है. कोई अकेला है तो कोई हुजूम के साथ. किसी के पास शब्दों के अम्बार हैं तो कोई निरी  निशब्द। किसी के पास समाज है तो कोई सामाजिकता से दूर। पर एक चीज़ सबके पास सामान है , वह है वर्जनाएं ! महिला होकर सबके पास आप  बहुत सी रस्सियां और सीमाएं हैं।  सबको क्षितिज छूना हैं सबको अपने हिस्से का हँसना है, सबको अपने हिस्से की महत्वाकांक्षा पूरी करनी हैं और सब की सब पहाड़ देख  कर चांदनी सी छिटक जाती हैं।  सबको प्यार करना है, सबको प्यार पाना भी है , सबको गीत भी गाने हैं, ज़िंदगी भी संवारनी है पर  सबका भेड़ियों को लेकर एक जैसा ही  डर है. सब दिन से प्यार करती हैं रात सबको खौफज़दा कर देती है।
                                         ये  इश्वर की नन्ही परियां अस्तित्व नहीं अस्तित्व सार्थकता चाहती हैं; बहुत रात को सड़क पर अकेले होने पर सहायता नहीं आपसे दिशा चाहती हैं; ये सजती हैं तो इसलिए नहीं कि कोईं  इन्हे घूर घूर कर देखे, ये सुन्दर हैं तो इसलिए नहीं कि आप  पिपासु हो उठें , ये  गाती हैं तो इसलिए नहीं कि आप हवासनाक हो जाएँ। आप यदि सचमुच पुरुष हैं तो मित्रता में इनका वह कंधा  बने जिस पर वे आँख लगा थोड़ा सुस्ता लें ;  भ्रातत्व में  उसकी भोली शरारतों में साथ बने ; पितृत्व में उसके लिए अपनी मज़बूत बाहों का झूला बने,  पुत्रत्व में कभी कभी उनको भी गले से लगा लें , और साख्य  में बने उसके वह मधुर प्रेमी  जिसको वे मंदिर की चौखट समझ अपना हर दुःख सुख साझा कर लें। उसे हतोत्साहित कर उसके कर्म यज्ञ में बाधा डालना पुरुषत्व नहीं , अपने सहयोग से उसका कार्य निखार देना आपका पुरुषत्व है.
      याद रखिये, पुरुष इसीलिए पुरुष है कि  स्त्री स्त्री है. स्त्री और पुरुष ज़िंदगी का रास्ता  जल्दी जल्दी तय करने के पहिये नहीं बल्कि रास्ते का आनंद उठाने के दो साथी हैं , धीमे धीमे , प्यार से जीवन जी लेने के लिए. पुरुषों को पुरुष होने पर प्रणाम और स्त्री को स्त्री बने रहने पर नमन