दिल
एक
दरिया
दश्त
किनारे
- सेहबा जाफ़री
" आह!
वह
कोई
सुरमई
शाम
की
साईत रही
होगी।
दिन
वही,
जिन्हे
ज़मीन
पर
दिसंबर
के
शुरुआती
दिन
कहा
जाता
है.
फ़रिश्ते
गोश्त
के
जिस
नाज़ुक
गुलाबी
अज़ाँ
को
ठोक
-पीट
कर
तैयार
कर
रहे
थे
वह
दिले
- माशूक़
था"
बोलते
बोलते
अफ़्शाँ
ने
कॉफ़ी
का
एक
घूँट
लिया।
"
ओ
फ़िलॉस्फ़र
! लुक़्मान
आता
होगा,
बंद
करो
ये,
और
अपने
चेहरे
पर
पोछा
मार
लो
!" 'अर्शान' अफ़्शाँ का
इकलौता
भाई
थोड़ा तल्ख़ अंदाज़ में बोला
कि अज़रा
जो
अदब
की
मास्टर्स
ले
रही
थी,
अफ़्शाँ
की
पसंदीदा
स्टूडेंट
थी
और
असद
शिराज़ी
की
तहरीर
समझने
उसके
पास
आयी
थी,
सकते
में
आ
गई।
'अर्शान'
अब
क्विन
के
साथ
कवर
जीत
कैरम
टेबल
से
उठने
की
जल्दबाज़ी
करने
लगा. अफ़्शाँ
ने
उसकी
आवाज़
को
अनदेखा
किये
बिना
पढ़ाना
जारी
रक्खा।
"
माशूक़
के
दिल
को
तरह
तरह
की
अज़ीयतें
देकर
जब
रब
ने फ़रिश्तों
से
कहा
कि
इसे
उस
लड़की
के
लगा
दो
कि जिसके
सामने
क़लम
रक्खा
जाए
और
वह
इसे
फ़ौरन
उठा
ले।
"
"
फिर
?" अज़रा का मुँह हैरतअंगेज
तरीके
से
लाल
हो
रहा
था.
"
फिर
! " एक लम्हे को रुकी अज़रा की आवाज़। आँगन
में
गहराता
सन्नाटा
और
एक
पसरी
सी
खामोशी।
फिर
यूं
हुआ
, बेले
के
झुरमुट
में
शाम
के
बाद
रात
की
नीम
तारिकियाँ
छाने
लगीं।
अफ़्शाँ
का
दिल
बैचैन
होने
लगा
और
दूर
सड़क
से
गुज़रती
अल्वी
की
बाइक
, अजीब
सा
शोर
किये
, उसके
जज़्बातों
से
होकर
गुज़र
गयी।
अक्सर
होता
भी यही
है,
उसका
खाना-
पीना,
सोना-
उठना,
बैठना
जीना
-जागना
जैसे
सब
अज़रा
के
अंदर
से
होकर
ही
गुज़रता
था;
न
ना
! " ज़ुलैख़ा " नहीं
थी
वह
!!!! अल्वी
उसे
अक्सर
कैंटीन
में
साथ
साथ
कॉफ़ी
पीते,
" हीर
" कहा
करता
था.
और
उसकी
तमाम
हश्शाश्
हसरतें
उसके
सीने
में
रक़्स
करने
लगती
थी।
अपने
चेहरे
के
तमाम
रंग
अपने
इकलौते
भाई
से
छुपा
कर वह
असद
शिराज़ी
को
कन्टीन्यु
करने
लगी.
"
फिर
वही
! दिल-ए
-माशूक़
बड़ी
आजिज़ी
से
बहुत
सारी
दोशीज़ाओं
के
नज़दीक
बारी
बारी
लाया
गया
; चाँदी
की
परात
में
, उसके
एक
हिस्से
पर
क़लम,
और
दूसरे
हिस्से
पर
चूड़ियाँ
और
बीच
में
दिल
को
बड़े
एहतेमाम
से
सजाया
गया ……… ।
"
"
में'म
! आप
कहें
तो
कल
आ
जाऊं
" अज़रा
मौके
की
नज़ाकत
को
कुछ
कुछ
समझ
रही
थी
"नहीं
!"
अबके
अज़रा
का
लहजा
कुछ
कड़क
था. आगे
असद
शिराज़ी
लिखते
हैं,
" किसी भी लड़की ने दिल पर नज़र नहीं डाली , और चहकती हुई चूड़ियों पर
लपकने
लगीं।
फेहरिस्त
के
आखिर
में
खड़ी
आरज़ुओं
के
गांव
में
उतारी
जाने
वाली
एक
साँवली
- सलोनी
लड़की
को
बेसाख्ता
क़लम
पर
प्यार
आ
गया,
और .………
"
"
बेटे
! इधर
आइये।
"
अब्बू
ने
बेहद
मोहब्बत
से
उसे
आवाज़
दी।
"
जी!"
उसकी
आवाज़
में
बेहद
उदासी
थी
"
नही
करनी
आपको
इससे
शादी
? "
उसकी
आँखों
से
दो
बूँद
आंसूं
निकले
और
अब्बू
ने
इसे
सीने
से
लगा
लिया
, " कोई बात नहीं ! जब तक दिल न चाहे कोई बात नही" अर्शान
ने
उसे
घूर
कर
देखा,
और
वह
दिलो
जान
से
असद
शिराज़ी
पढ़ाने
बैठ
गई।
"
माशूक़
का
दिल
बेहद
प्यारा
था,
साफ़
सफ़ेद
, सुबह
सुबह
खिल
आये
ताज़े
मोगरे
जैसा;
उसमे
मोहब्बत
करने
की
ताब
थी
और
हज़ार
क़ुसूर
के
बावजूद
भी
अपने
आशिक़
को
माफ़
कर
देने
का
बेहद
खुदाई
सा
जज़्बा
!"
"
में'म!
रात
गहराने
लगी
है,
आप
इजाज़त
दें
तो
इसे
कल
मुकम्मल
करलें
! " अफ़शाँ ने मुस्कुराते हुए उसे विदा किया ।
इस वाकिये को
बारह
साल
गुज़र
गए,
अफ़्शाँ
और
अल्वी
की
मोहब्बत
शिया
-सुन्नी
की
फ़िरक़ा
परस्ती
निगल
गयी,
मौसम
बीतते
गए
और
उसे
असद
शिराज़ी
की
तहरीरें
पढ़ाने
में
महारत
हासिल
हो
गई।
आज
पूरे
बारह
साल
बाद
, कश्मीर
यूनिवर्सिटी
ने
असद
शिराज़ी
पर
लेक्चर
देने
इन्वाइट
किया
है।
दिल-फरेब
जगह
है
ये;
बर्फ
की
सफेदी
के
नीचे
से
झांकते
सब्ज़े
और
सुर्खी,
बिल्कुल अज़रा के अपने लिबास जैसे। वह कोई गहना नहीं पहनती, उसने आँखों
में कभी
काजल
नहीं
लगाया
फिर
भी
दर्जनो
आँखें
बेहद
मोहब्बत
और
कशिश
से उसे
तकतीं हैं
.
स्टूडेंट्स ने
गेट
पर
जम कर
उस
पर
फूल
बरसाए
और
वह
बंद
होंठों
की
मुस्कराहट से
उनका
इस्तक़बाल समेटती
स्टाफ
से
मुख़ातिब
हुई।
सारा
डिपार्टमेंट
, दीगर
डिपार्टमेंट
की कुछ
और
हस्तियां।
मैथ्स
डिपार्टमेंट
के
अल्वी
सर
सबको
क़हवा पिला
रहे
थे।
अल्वी
की
गर्म
अंगुलियाँ
अज़रा
की
अँगुलियों
को
इत्तेफ़ाकन
छू
गयीं।
"
पहचाना
" अज़रा
की
खामोश
आँखों
में
मोहब्बत
की
हज़ारों
क़न्दीलें
रोशन
सी
हो
उठीं
"
शायद
श
……… बा
……ना ……… ।"
ओह्ह!
छनाक
से
कुछ
टूटा
उसके
अंदर
और
खुद
को
समेटने
की
कोशिश
में
उसकी
अंगुलियां
लहू-लुहान
होने
लगीं।
“चलिए!”
ऑडिटोरियम
की
तरफ
निगाहें
करते
प्रिंसिपल
सा'ब
ने
बेहद
अदब
से
इशारा
किया।
"
जिसने
क़लम
उठाया
, फरिश्तों
ने
उनके रिश्ते
चूड़ियों
से
तर्क
कर
दिए,
उनकी
ज़िंदगी
के
केनवस
अब
बदरंग
हो
गए
थे
, उनके
चेहरे
पर
अब
कोई
रंग
नहीं
था,
अगरचे
मोहब्बत
के
नूर
से
उनका
चेहरा
झल मारता
था.
उनके
बालों
को
कोई
गजरा
नसीब
नहीं
था
, बहारें
उन
पर
मिस्मार
थीं उनके
दरवाज़े
पर
सिर्फ
एक
ही
मौसम
होता
था,
हिज्र
का
मौसम;
चांदनी
रात
में
भी
ठंडक
को
तरसती
उनकी
रूहें
रोती थीं…।"
आगे
असद
शिराज़ी
लिखते
हैं
:
फिर
भी!
फिर
भी
वे आशिक़
की
बड़ी
से
बड़ी
ग़लती को
माफ़
कर
देने
का
जिगर
रखतीं
थीं
, फिर
चाहे
तो
बेअदब
आशिक़
अपनी
माशूक़
का
नाम
भी
भूल
जाए
……।
"
उसकी
आवाज़
का
सुरूर
उसके
सांवलेपन
में
खिलता,
स्टूडेंट्स
के
दिलों
में
उतर गया,
और
उसकी
आँखें अल्वी
के
चेहरे
पर
सुकून
तलाशने
में
जुट
गयीं
बिलकुल दश्ते
वीरानी
के
किनारे
, किसी
दरिया
जैसी.
बहुत ही सुंदर कहानी। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कहानी। धन्यवाद।
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