होने लगा था
मुझे गुब्बारों से प्यार
रोकने लगी थी मैं
सड़क से गुज़रते चर्ख़ी वाले को
झाँकने लगी थी मै
ख़्वाबों के झरोखों में
जब तुम्हारी धड़कने
मेरी धड़कनो में शामिल हो
धड़कने लगीं थीं
फिर से सीखने शुरू
कर दिए थे मैंने
बच्चों के खेल
फिर से बनाने लगी थी मैं
काग़ज़ के खिलौने
परियों की कहानियों में गुम
भूतों के किरदार
फिर से ज़िंदा होने लगे थे
मेरे इर्द -गिर्द
जब तुम्हारी साँसे
मेरी साँसों में घुलने लगीं थी
फिर से बनने लगे थे
नींद की नदी पर
लोरियों के पुल
फिर से सजने लगी थी
अलिफ़ लैला की दुनिया
लकड़ी के घोड़े पर चढ़
इन्द्रधनुष की क़ामत
नाप आते थे मेरे ख़याल
जब मैं सोंचने लगी थी
तुम्हारे लिए नाम
कुशादा होने
लगा था मेरा आस्मां
उगने लगा था मेरा सूरज
वक़्त से पहले
डरने लगी थी मै
करवट लेने में भी
सोंचती रहती थी
मुस्तक़िल तुमको
मेरा हाथ पकड़ जब
मुझे बतलाया डॉक्टर साहिबा ने
नहीं आ रहे हो तुम
कि अभी अर्श पर
नहीं हुआ वक़्त
तुम्हारी आमद का
छनाक से
टूटा था , मेरे अंदर कुछ
फिर बाँट दी मैंने
सारी उमंगें
मेरे इर्द गिर्द बच्चों को
जी लीं मैंने
सारी कहानियाँ
अपने नज़दीक के
तमाम नन्हे- मुन्नों के साथ
सजा लिया मैंने
सारे बच्चों के साथ
तुम्हारे हिस्से का प्यार
मैं रोई नहीं
नहीं बहाये मैंने आंसू
मुझे लगता है
गलत कहती है डॉक्टर
तुम तो यहीं हो
यही कही
हर ख्वाब, हर खिलौने में
रंग, फूल , तितली
सब में शामिल
घर के सामने से
गुज़र कर
स्कूल को जाते
हर बच्चे में
कायनात की
हर नयी उमंग में
फ़िज़ाँ की
हर नयी कोंपल में
मैंने तो तुम्हे
इस दुनिया के हर नन्हे में ढूंढ लिया है
-मम्मी
:)
ReplyDeleteBehtreen Abhivyakti.... Bahut khoob!!!
ReplyDeleteshukriya! Shah Nawaz ji :)
ReplyDeleteमार्मिक ... जब तक दिमाग चलता है कहीं नहीं जाते बच्चे .... आस पास ही रहते हैं ...
ReplyDeletethnx Digamber ji!
Delete~_~
ReplyDeleteisharon isharon me....! :)
Deleteजिन्दगी अपना रास्ता तलाश लेती है।
ReplyDeleteshukriya, Siddarth ji!
Deleteमाँ की ममतामयी भावनाओं को खूबसूरत लफ़्ज़ दिए हैं आपने इस कविता में !
ReplyDeleteShukriya manish ji.
Deletesubhaanallah..laajwaab
ReplyDeletejazakallah....ane k liye :)
Delete'नींद की नदी पर
ReplyDeleteलोरियों के पुल'!
कविता है ? या कलेजा चाक कर हरफ उघेरे हों !
और जब ऐसी शिद्दत है तो न चाहतें जिस्म लेती हैं , न छोड़ती !
shukriya
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